नासिक के प्रसिद्ध ज्योतिष, वेदज्ञ, 6 शास्त्रों सहित सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत मुले शास्त्री एक बार नागपुर के धनपति सांईं भक्त बापूसाहेब बूटी के साथ शिरडी पधारे। जब दोनों अन्य लोगों के साथ बाबा के पास पहुंचे तो बाबा उस वक्त बाबा भक्तों को आम खिला रहे थे। फिर बाबा ने केले के छिलके निकालकर अपने पास रखे और गिरी को भक्तों में वितरित करने लगे।
उसी समय मूले शास्त्री ने बाबा से उनके हाथ की रेखाएं देखने का निवेदन किया लेकिन बाबा ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर उनके हाथों में खाने के लिए केले पकड़ा दिए। मुले शास्त्री ने दो तीन बार विनती की, परन्तु बाबा ने उनकी बात नहीं मानी। आखिर हारकर मुले अपने ठहरने के स्थान पर चले गए और बाबा भी वाड़े से लेंडीबाग के लिए रवाना हो गए। जाते-जाते बाबा ने कहा कि कुछ 'गेरू लाना, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे।' बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में नहीं आया।
उसके बाद जब बाबा दोपहर को लेंडीबाग से पुन: मस्जिद लौटे तो भक्त उनकी आरती की तैयारी में जुटे हुए थे। आरती का समय जानकर बापूसाहेब बूटी अपने ठहरने के स्थान पर से जाने के लिए उठे और उन्होंने मुलेजी से भी चलने को कहा। लेकिन मुले ने टालने के लिए कहा कि शाम को चलूंगा अभी नहीं। दरअसल, मुले मस्जिद में नहीं जाना चाहते थे। बाबूसाहेब अकेले ही चले गए।
बाबा की आरती सम्पन्न होने के बाद बाबा बूटीसाहेब से बोले, 'जाओ और उस नए ब्राह्मण से कुछ दक्षिणा लाओ|' बूटी ने बाबा की आज्ञा का पालन किया और वे मुले के पास पहुंचे। उन्होंने मुले से कहा, बाबा आपसे दक्षिणा मांगने को कह रहे हैं।'... मुलेजी यह सुनकर हैरान-से रह गए और सोचने लगे मैं तो अग्निहोत्री ब्राह्मण हूं। क्या मुझे बाबा को दक्षिणा देनी चाहिए? फिर सोचने लगे बाबा जैसे पहुंचे हुए संत ने मुझसे दक्षिणी मांगी है और बूटी जैसे करोड़पति दक्षिणा लेने के लिए आए हैं तो निश्चित ही कुछ बात है अब मैं ऐसे में कैसे मना कर सकता हूं? ऐसा विचार करके मुलेजी मस्जिद जाने के लिए चल पड़े। परंतु मस्जिद पहुंचते ही उनका ब्राह्मण होने का भाव फिर जग उठा और वह मस्जिद से कुछ दूर खड़े होकर वहीं से ही बाबा पर पुष्प अर्पण करने लगे।
लेकिन तभी जब उन्होंने ध्यान से देखा तो घोर आश्चर्य हुआ कि बाबा के आसन पर सांईं बाबा नहीं, बल्कि गेरुआ वस्त्र पहने उनके गुरु कैलाशवासी घोलप स्वामी विराजमान हैं। यह देखकर उनकी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने आंखें मसली और फिर से ध्यानपूर्वक देखा। सचमुच वहां पर तो भगवा वस्त्र धारण किए उनके गुरुजी की मुस्कुरा रहे थे और सभी उनकी आरती गा रहे थे। उन्हें लगा की कहीं यह भ्रम तो नहीं, स्वप्न तो नहीं, यह सोचकर उन्होंने खुद को चिकोटी काटकर देखा। अब पक्का हो गया था कि यह सपना नहीं था। उन्होंने सोचा कि मेरे गुरु यहां मस्जिद में क्यों और कैसे आ गए।
जब उन्हें विश्वास हो गया कि ये मेरे ही गुरु है तो वे सबकुछ भूलकर मस्जिद की ओर बढ़े और गुरु के चरणों में शीश झुकाकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। वहां उपस्थित बाबा के अन्य भक्त बाबा की आरती गा रहे थे। सभी लोग तो सांईं बाबा को देख रहे थे। लेकिन मुलेजी को तो वहां अपने गुरु ही दिखाई दे रहे थे। वे जोर-जोर से अपने गुरु की स्तुति करने लगे। वहां उपस्थित लोग यह सब दृश्य देखकर बड़ा ही आश्चर्य करने लगे। सभी सोचने लगे की दूर से फूल फेंकने वाला ब्राह्मण अब बाबा के चरणों पर गिरकर कैसे स्तुति करने लगा? लोग बाबा की जय-जयकार कर रहे थे। तो मुले भी घोलपनाथ की जय-जय कर रहे थे।
तक्षण ही मुलेजी ने देखा की उनके गुरु की जगह तो सांईं बाबा खड़े हैं जो हाथ फैलाकर मुझसे दक्षिणा मांग रहे हैं। बाबा की यह विचित्र लीला देखकर मुले अपनी सुधबुध खो बैठे, उनकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। फिर उन्होंने बाबा को नमस्कार करके दक्षिणा भेंट की और बोले, बाबा आज मुझे मेरे गुरु के दर्शन होने से मेरे सारे संशय दूर हो गए। इसके बाद मुलेजी बाबा के परमभक्त भक्त बन गए।
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