Sai Satcharitra Chapter 18-19 - Sai Shradha Saboori

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Monday, May 21, 2018

Sai Satcharitra Chapter 18-19

ब्रहमज्ञान हेतु लालायित एक धनी व्यक्ति के साथ बाबा ने किस प्रकारा व्यवहारा किया, इसका वर्णन हेमाडपंत ने गत दो अध्यायों में किया है । अब हेमाडपंत पर किस प्रकार बाबा ने अनुग्रह कर, उत्तम विचारों को प्रोत्साहन देकर उन्हें सफलीभूत किया तथा आत्मोन्नति व परिश्रम के फ्रतिफल के सम्बन्ध में किस प्रकार उपदेश किये, इनका इन दो अध्यायों में वर्णन किया जायेगा । 



पूर्व विषय
यह विदित ही है कि सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है । उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है । इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि जो शिक्षा या उपदेश सदगुरु द्घारा प्राप्त हो, उसे अन्य लोगों में प्रसारित न करना चाहिये । उनकी ऐसी भी धारणा है कि उसे प्रकट कर देने से उसका महत्व घट जाता है । यथार्थ में यह दरृष्टिकोण संकुचित है । सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है । प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें । यह नियम जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में प्राप्त उपदेशों के लिए है । उदाहरणार्थ बुधकौशिक ऋषि ने स्वप्न में प्राप्त प्रसिदृ रामरक्षा स्तोत्र साधारण जनता के हितार्थ प्रगट कर दिया था । 
जिस प्रकार एक दयालु माता, बालक के उपचारार्थ कड़वी औषधि का बलपूर्वक प्रयोग करती है, उसी प्रकार श्री साईबाबा भी अपने भक्तों के कल्याणार्थ ही उपदेश दिया करते थे । वे अपनी पद्घति गुपत न रखकर पूर्ण स्पष्टता को ही अधिक महत्व देते थे । इसी कारण जिन भक्तों ने उनके उपदेशों का पूर्णताः पालन किया, वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हुए । श्री साईबाबा जैसे सदगुरु ही ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर आत्मा की दिव्यता का अनुभव करा देने में समर्थ है । विषयवासनाओं से आसक्ति नष्ट कर वे भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, जिसके फलस्वरुप ही ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होकर, ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहती है । यह सब केवल उसी समय सम्भव है, जब हमें सदगुरु का सानिध्य प्राप्त हो तथा सेवा के पश्चात् हम उनके प्रेम को प्राप्त कर सकें । तभी भगतवान भी, जो भक्तकामकल्पतरु है, हमारी सहायतार्थ आ जाते है । वे हमें कष्टों और दुःखों से मुक्त कर सुखी बना देते है । यह सब प्रगति केवल सदगुरु की कृपा से ही सम्भव है, जो कि स्वयँ ईश्वर के प्रतीक है । इसीलिये हमें सदगुरु की खोज में सदैव रहना चाहिये । अब हम मुख्य विषय की ओर आते है । 

श्री साठे 

एक महानुभाव का नाम श्री. साठे था । क्रापर्ड के शासनकाल में कई वर्ष पूर्व, उन्हें कुछ ख्यति प्राप्त हो चुकी थी । इस शासन का बम्बई के गवर्नर लार्ड रे ने दमन कर दिया था । श्री. साठे को व्यापार में अधिक हानि हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण उन्हें बड़ा धक्का लगा । वे अत्यन्त दुःखित और निराश हो गये और अशान्त होने के कारण वे घर छोड़कर किसी एकान्त स्थान में वास करने का विचार करने लगे । बहुधा मनुष्यों को ईश्वर की स्मृति आपतत्तिकाल तथा दुर्दिनों में ही आती है और उनका विश्वास भी ईश्वर की ओर ऐसे ही समय में बढ़ जाता है । तभी वे कष्टों के निवारणार्थ उनसे प्रार्थना करने लगते है । यदि उनके पापकर्म शेष न रहे हो तो भगवान भी उनकी भेंट किसी संत से करा देते है, जो उनके कल्याँणार्थ ही उचित मार्ग का निर्देश कर देते है । ऐसा ही श्री. साठे के साथ भी हुआ । उनके एक मित्र ने उन्हें शिरडी जाने की सलाह दी, जहाँ मन की शांति प्राप्त करने और इच्छा पूर्ति के निमित्त, देश के कोने कोने से लोगों के झुंड के झुंड आते जा रहे है । उन्हें यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ और सन् 1917 में वे शिरडी गये । बाबा के सनातन, पूर्ण-ब्रहृ, स्वयं दीप्तिमान, निर्मल शान्त एवं स्थिर हो गया । उन्होंने सोचा कि गत जन्मों के संचित शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही आज मैं श्री साईबाबा के पवित्र चरणों तक परहुँचने में समर्थे हो सका हूँ । श्री. साठे दृढ़ संकल्प के व्यक्ति थे । इसलिये उन्होंने शीघ्र ही गुरुचरित्र का पारायण प्रारम्भ कर दिया । जब एक सप्ताह में ही चरित्र की प्रथम आवृत्ति समाप्त हो गई, तब बाबा ने उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न दिया, जो इस प्रकार है – 
बाबा अपने हाथ में चरित्र लिये हुए है और श्री. साठे को कोई विषय समझा रहे है तथा श्री. साठे सम्मुख बैठे ध्यानपूर्वक श्रवण कर रहे है । जब उनकी निद्रा भंग हुई तो स्वप्न को स्मरण कर वे बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने विचार किया कि यह बाबा की अत्यंत कृपा हे, जो इस प्रकार अचेतनावस्था में पड़े हुओं को जागृत कर उन्हें गुरुचरित्र का अमृतपान करने का अवसर प्रदान करते है । उन्होंने यह स्वप्न श्री. काकासाहेब दीक्षित को सुनाया और श्री साईबाबा के पास प्रार्थना करने को कहा कि इसका यथार्थ अर्थ क्या है और क्या एक सप्ताह का पारायण ही मेरे लिये पर्याप्त है अथवा उसे पुनः प्रारम्भ करुँ । श्री. काकासाहेब दीक्षित ने उचित अवसर पाकर बाबा से पूछा कि हे देव । उस दृष्टांत से आपने श्री. साठे को क्या उपदेश दिया है । क्या वे पारायण सप्ताह स्थगित कर दे । वे एक सरलहृदय भक्त है । इसलिए उनकी मनोकामना आप पूर्ण करें और हे देव । कृपाकर उन्हें एक स्वप्न का यथार्थ अर्थ भी समझा दें । तब बाबा बोले कि उन्हें गुरु चरित्र का एक सप्ताह और पारायण करना उचित है । यदि वे ध्यानपूर्वक पाठ करेंगे तो उनका चित्त शुदृ हो जायेगा और घीघ्र ही कल्याँ होगा । ईश्वर भी प्रसन्न होकर उन्हें भव-बन्धन से मुक्त कर देंगे । इस अवसर पर श्री. हेमाडपंत भी वहाँ उपस्थित थे और बाबा के चरणकमलों की सेवा कर रह थे । बाबा के वचन सुनकर उन्हें विचार आया कि साठे को केवल सप्ताह के पारायण से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई, जब कि मैं गत 40 बर्षों से गुरुचरित्र का रारायण कर रहा हूँ, जिसका कोई परिणाम अब तक न निकला । उनका केवल सात दिनों तक शिरडी निवास ही सफल हुआ और मेरा गत सात वर्ष का (1910-17) सहवास क्या व्यर्थ हो गया । चातक पक्षी के समान मैं सदा उसकृपाघन की रहा देखा करता हूँ, जो मेरे ऊपर मस्तिष्क में आया ही था कि बाबा को सब ज्ञात हो गया । ऐसा भक्तों ने सदैव ही अनुभव किया है कि उनके समस्त विचारों को जानकर बाबा तुरन्त कुविचारों का दमन कर उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते थे । हेमाडपंत का ऐसा विचार जानकर बाबा ने तुरन्त ही आज्ञा दी कि शामा के यहाँ जाओ और कुछ समय उनसे वार्तालाप कर, 15 रु. दक्षिणा ले आओ । बाबा को दया आ गई थी । इसी कारण उन्होंने ऐसी आज्ञा दी । उनकी अवज्ञा करने का साहस भी किसे था । श्री. हेमाडपंत शीघ्र शामा के घर पहुँचे । इस समय पर शामा स्नान कर धोती पहन रहे थे । उन्होंने बाहर आकर हेमाडपंत से पूछा कि आप यहाँ कैसे । जान पड़ता है कि आप मसजिद से ही आ रहे है तथा आप ऐसे व्यथित और उदास क्यों है आप अकेले ही क्यों आये है । आइये, बैठिये, और थोड़ा विश्राम तो करिये । जब तक मैं पूजनादि से भी निवृत्त हो जाऊँ, तब तक आप कृपा कर के पान आदि ले । इसके पश्चात् ही हम और आप सुखपूर्वक वार्तालाप करें । ऐसा कहकर वे भीतक चले गए । दालान में बैठे-बैठे हेमाडपंत की दरृष्टि अचानक खिड़की पर रखी नाथ भागवत पर पड़ी । नाथ भागवत श्री एकनाथ द्घारा रचित महाभारत के 11 वें स्कन्ध पर मराठी भाषा में की हुई एक टीका है । श्री साईबाबा की आज्ञानुसार श्री. बापूसाहेब जोग और श्र. काकासाहेब दीक्षित शिरडी में नित्य भगवदगीता का मराठी टीकासहित, जिसका नाम भावार्थए दीपिका या ज्ञानेश्वरी है (कृष्ण और भक्त अर्जुन संवाद), नाथ भागवत (श्रीकृष्ण उद्घव संवाद) और एकनाथ का महान् ग्रन्थ भावा्र्थ रामायण का पठन किया करते थे । जब भक्तगण बाबा से कोई प्रश्न पूछने आते तो वे कभी आंशिक उत्तर देते और कभी उनको उपयुक्त भागवत तथा प्रमुख ग्रंथों का श्रवण करने को कहते थे, जिन्हें सुनने पर भक्तों को अपने प्रश्नों के पूर्णतया संतोषप्रद उत्तर प्राप्त हो जाते थे । श्री. हेमाडपंत भी नित्य प्रति नाथ भागवत के कुछ अंशों का पाठ किया करते थे । 
आज प्रातः मसजिद को जाते समय कुछ भक्तों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना नित्य नियमानुसार पाठ अधूरा ही छोड़ दिया था । उन्होंने जैसे ही वह ग्रन्थ उठाकर खोला तो अपने अपूर्ण भाग का पृष्ठ सामने देखकर उनको आश्चर्य हुआ । उन्होंने सोचा कि बाबा ने इसी कारण ही मुझे यहाँ भेजा है, ताकि मैं अपना शेष पाठ पूरा कर लूँ और उन्होंने शेष अंश का पाठ आरम्भ कर दिया । पाठ पूर्ण होते ही शामा भी बाहर आये और उन दोनों में वार्तालाप होने लगा । हेमाडपंत ने कहा कि मैं बाबा का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूँ । उन्होंने मुझे आपसे 15 रु. दक्षिणा लाने तथा थोड़ी देर वार्तालाप कर आपको अपने साथ लेकर मसजिद वापस आने की आज्ञा दी है । शामा आश्चर्य से बोले मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है । इसलिये आप रुपयों के बदले दक्षिणा मे मेरे 15 नमस्कार ही ले आओ । तब हेमाडपंत ने कहा कि ठीक है, मुझे आपके 15 नमस्कार ही स्वीकार है । आइये, अब हम कुछ वार्तालाप करें और कृपा कर बाबा की कुछ लीलाएँ आप मुझे सुनाय, जिससे पाप नष्ट हो । शामा बोले, तो कुछ देर बैठो । इस ईश्वर (बाबा) की लीला अदभुत है । कहाँ मैं एक अशिक्षित देहाती और कहाँ आप एक विद्घान्, यहाँ आने के पश्चात् तो आप बाबा की अनेक लीलाएँ स्वयं देख ही चुके है, जिनका अब मैं आपके समक्ष कैसे वर्णन कर सकता हूँ । अच्छा, यह पान-सुपारी तो खाओ, तब तक मैं कपड़े पहिन लूँ । 
थोडी देर में शामा बाहर आये और फिर उन दोनों में इस प्रकार वार्तालाप होने गला ः- 
शामा बोले – इस परमेश्वर (बाबा) की लीलायें आगाध है, जिसका कोई पार नहीं । वे तो लीलाओं से अलिप्त रहकर सदैव विनोद किया करते है । इसे हम अज्ञानी जीव क्या समझ सकें । बाबा स्वयं ही क्यों नही कहते । आप सरीखे विद्घान को मुझ जैसे मूर्ख के पास क्यों भेजा हैं । उनकी कार्यप्रणाली ही कल्पना के परे है । मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे लौकिक नहीं है । इस भूमिका के साथ ही साथ शामा ने कहा कि अब मुझे एक कथा की स्मृति हो आई है, जिसे मैं व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ । जैसी भक्त की निष्ठा और भाव होता हे, बाबा भी उसी प्रकार उनको सहायता करते है । कभी कभी तो बाबा भक्त की कठिन परीक्षा लेकर ही उसे उपदेश दिया करते हैं । उपदेश शब्द सुनकर साठे के गुरुचरित्र-पारायण की घटना का तत्काल ही स्मरण करके हेमाडपंत को रोमांच हो आया । उन्होंने सोचा, कदाचित् बाबा ने मेरे चित्त की चंचलता नष्ट करने के लिये ही मुझे यहाँ भेजा है । फिर भी वे अपने विचार प्रकट न कर, शामा की कथा को ध्यानपूर्वक सुनने लगे । उन सब कथाओं का सार केवल यही था कि अपने भक्तों के प्रति बाबा के मन में कितनी दया और स्नेह है । इन कथाओं को श्रवण कर हेमाडपंत को आंतरिक उल्लास का अनुभव होने लगा । तब शामा ने नीचे लिखी कथा कही – 

श्री मती राधाबाई देशमुख 

एक समय एक वृद्घा, श्री मती राधाबाई, जो खाशाबा देशमुख की माँ थी, बाबा की कीर्ति सुनकर संगमनेर के लोगों के साथ शिरडी आई । बाबा के श्री दर्शन कर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई । श्री साई चरणों में उनकी अटल श्रद्घा थी । इसलिये उन्होंने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, बाबा को अपना गुरु बना, उनसे उपदेश ग्रहण किया जाय । 
आमरण अनशन का दृढ़ निश्चय कर अपने विश्राम गृह में आकर उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । मैं इस वृद्घा की अग्निपरीक्षा से बिल्कुल भयभीत हो गया और बाबा से प्रार्थना करने लगा कि देव । आपने अब यह क्या करना आरम्भ कर दिया है । ऐसे कितने लोगों को आप यहाँ आकर्षित किया करते है । आप उस वृद्घ महिला से पूर्ण परिचित ही है, जो हठपूर्वक आप पर अवलम्बित है । यदि आपने कृपादृष्टि कर उसे उपदेश न दिया और यदि दुर्भाग्यवश उसे कुछ हो गया तो लोग व्यर्थ ही आपको दोषी ठहरायेंगे और कहेंगे कि बाबा से उपदेश प्राप्त न होने की वजह से ही उसकी मृत्यु हो गई है । इसलिये अब दया कर उसे आशीष और उपदेश दीजिये । वृद्घा का ऐसा दृढ़ निश्चय देख कर बाबा ने उसे अपने पास बुलाया और मधुर उपदेश देकर उसकी मनोवृत्ति परिवर्तित कर कहा कि ह माता । क्यों व्यर्थ ही तुम यातना सहकर मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो । तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा । तुम मुझ पर दया करो और जो कुछ मैं कहूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो । मैं अपनी स्वयं की कथा तुमसे कहता हूँ और यदि तुम उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करोगी तो तुम्हें अवश्य परम शान्ति प्राप्त होगी । मेरे एक गुरु, जो बड़े सिदृ पुरुष थे, मुझ पर बड़े दयालु थे । दीर्घ काल तक मैं उनकी सेवा करता रहा, फिर भी उन्होंने मेरे कानों में कोई मंत्र न फूँका । मैं उनसे कभी अलगाना भी नहीं चाहता था । मेरी प्रबल उत्कंठा थी कि उनकी सेवा कर जिस प्रकार भी सम्भव हो, मंत्र प्राप्त करुँ । परन्तु उनकी रीति तो न्यारी ही थी । उन्होंने पहले मेरा मुंडन कर मुझसे दो पैसे दक्षिणा में माँगे, जो मैंने तुरन्त ही दे दिये । यदि तुम प्रश्न करो कि मेरे गुरु जब पूर्णकाम थे तो उन्हें पैसे माँगना क्या शोभनीय था । और फिर उन्हें विरक्त भी कैसे कहा जा सकता था । इसका उत्तर केवल यह है कि वे कांचन को ठुकराया करते थे, क्योंकि उन्हें उसकी स्वप्न में भी आवश्यकता न थी । उन दो पैसों का अर्थ था – 

1.दृढ़ निष्ठा और 
2.धैर्य । 
जब मैंने ये दोनों वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए । मैंने बारह वर्ष उनके श्री चरणों की सेवा में ही व्यतीत किये । उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया । अतः मुझे भोजन और वस्त्रों का कोई अभाव न था । वे प्रेम की मूर्ति थे अथवा यों कहो कि वे प्रेम के साक्षात् अवतार थे । मैं उनका वर्णन ही कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि उनका तो मुझ पर अधिक स्नेह था और उनके समान गुरु कोई बिरला ही मिलेगा । जब मैं उनकी ओर निहारता तो मुझे प्रतीत होता कि वे गम्भीर मुद्रा में ध्यानमग्न है और तब हम दोनों आनंददित हो जाते थे । आठों प्रहर मैं एक टक उनके ही श्रीमुख की ओर निहारा करता था । मैं भूख और प्यास की सुध-बुध खो बैठा । उनके दर्शनों के बिना मैं अशान्त हो उठता था । गुरु सेवा की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे लिये कोई और चिन्तनीय विषय या पदार्थ न था । मुझे तो सदैव उन्हीं का ध्यान रहता था । अतः मेरा मन उनके चरण-कमलों में मग्न हो गया । यह हुई एक पैसे की दक्षिणा । धैर्य है दूसरा पैसा । मैं धैर्यपूर्वक बहुत काल तक प्रतीक्षा कर गुरुसेवा करता रहा । यही धैर्य तुम्हें भी भवसागर से पार उतार देगा । धैर्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व है । धैर्य धारण करने से समस्त पाप और मोह नष्ट होकर उनके हर प्रकार के संकट दूर होते तथा भय जाता रहता है । इसी प्रकार तुम्हें भी अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । धैर्य तो गुणों की खान व उत्तम विचारों की जननी है । निष्ठा और धैर्य दो जुड़रवाँ बहिनों के समान ही है, जिनमें परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है । 
मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे । उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे । यघपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई । वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे । जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार । सो हे माँ । मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ । केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है । 
मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे । उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे । यघपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई । वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे । जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार । सो हे माँ । मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ । केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है । 
ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का घोतक था । तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले । बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में । सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे । तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये । उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्घारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये है । बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है । तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था । तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे । बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे । इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये । हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृदृ महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है । तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है । अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ । कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया । वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है । तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है । उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है । अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है । तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्घति भी अद्घितीय है । यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिदृ होगी । आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी । तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी । मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो । यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो । इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रहृ के साथ अभिन्न हो जायेगा । कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर । न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है । छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है । उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है । ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है । बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उचच स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली । प्रिय पाठको । कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है । 
आरती समाप्त होने परप्रसाद वितरण हुआ । बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया । यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरहसे सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे । हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो । तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा । प्यारे पाठको । हेमाडपंत को उस समया मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ । आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये । 
19वे अध्याय के अन्त में हेमाडपंत ने कुछ और भी विषयों का वर्णन किया है, जो यहाँ दिये जाते है । 

अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश 

नीचे दिये हुए अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा । जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो । तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दरृरश्य को शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्घैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्घैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं । अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-प्रददर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलनये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये । जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं । 

उत्तम विचारों को प्रोत्साहन 

यह ध्यान देने योग्य बात है कि श्री साईबाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहन दिया करते थे । इसलिये यदि हम प्रेम और भक्तिपू्रवक अनन्य भाव से उनकी शरण जायें तो हमें अनुभव हो जायेगा कि वे अनेक अवसरों पर हमें किस प्रकार सहायता पहुँचाते है । किसी सन्त का कथन है कि यदि प्रातःकाल तुम्हारे हृदय में कोई उत्तम विचार उत्पन्न हो और यदि तुम उसकी पुष्टि दिनभर करो तो वह तुम्हारा विवेक अत्यन्त विकसित और चित्त प्रसन्न कर देगा । हेमाडपंत भी इसका अनुभव करना चाहते थे । इसलिये इस पवित्र शिरडी भूमि पर अगले शुभ गुरुवार के समूचे दिन नामस्मरण और कीर्तन में ही व्यतीत करुँ, ऐसा विचार कर वे सो रहे । दूसरे दिन प्रातःकाल उठने पर उन्हं सहज ही राम-नाम का स्मरण हो आया, जिससे वे प्रसन्न हुए और नित्य कर्म समाप्त कर कुछ पुष्प लेकर बाबा के दर्शन करने को गये । जब वे दीक्षित का वाड़ा पार कर बूटी-वाड़े के समीप से जा रहे थे तो उन्हें एक मधुर भजन की ध्वनि, जो मसजिद की ओर से आ रही थी, सुनाई पडी । यह एकनाथ का रोचक भजन औरंगाबादकर मधुर लयपूर्वक बाबा के समक्ष गा रहे थे । 

गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई । राम बिना कुछ मानत नाही ।। धु. ।। अन्दर रामा बाहर रामा । सपने में देखत सीतारामा ।। 1 ।। गुरु. ।। जागत रामा सोवत रामा । जहाँ देखे वहीं पूरन कामा ।। 2 ।। गुरु. ।। एका जनार्दनी अनुभव नीका । जहाँ देखे वहाँ रामसरीखा ।। 3 ।। गुरु. ।। 
भजन अनेकों है, परन्तु विशेषकर यह भजन ही क्यों औरंगाबादकर ने चुना । क्या यह बाबा द्घारा ही संयोजित विचित्र अनुरुपता नहीं है । और क्या यह हेमाडपंत के गत दिन अखंड रामनाम स्मरण के संकल्प को प्रोत्साहन नहीं है । सभी संतों का इस सम्बन्ध में एक ही मत है और सभी रामनाम के जप को प्रभावकारी तथा भक्तों की इच्छापूर्ति और सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिये इसे एक अमोघ इलाज बतलाते है। 

निन्दा सम्बन्धी उपदेश 

उपदेश देने के लिये किसी विशेष समय या स्थान की प्रतीक्षा न कर बाबा यथायोग्य समय पर ही स्वतन्त्रतापूर्वक उपदेश दिया करते थे । एक बार एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में दूसरे लोगों के सम्मुख किसी को अपशब्द कहे । गुणों की उपेक्षा कर उसने अपने भाई के दोषारोपण में इतने बुरे से कटु वाक्यों का प्रयोग किया कि सुनने वालों को भी उसके प्रति घृणा होने लगी । बहुधा देखने में आता है कि लोग व्यर्थ ही दूसरों की निंदा कर झगड़ा और बुराइयाँ उत्पन्न करते है । संत तो परदोषों को दूसरी ही दृष्टि से देखा करते है । उनका कथन है कि शुद्घि के लिये अनेक विधियों में मिट्टी, जल और साबुन पयार्प्त है, परन्तु निंदा करने वालों की युक्ति भिन्न ही होती है । वे दूसरों के दोषों को केवल अपनी जिहृा से ही दूर करते है और इस प्रकार वे दूसरों की निंदा कर उनका उपकार ही किया करते है, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है । निंदक को उचित मार्ग पर लाने के लिये साईबाबा की पदृति सर्वथा ही भिन्न थी । वे तो सर्वज्ञ थे ही, इसलिये उस निंदक के कार्य को वे समझ गये । मध्याहृकाल में जब लेण्डी के समीप उससे भेंट हुई, तब उन्होंने विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर उँगली उठाकर उससे कहा कि देखो, वह कितने प्रेमपूर्वक विष्ठा खा रहा है । तुम भी जी भर कर अपने भाइयों को सदा अपशब्द कहा करते हो और यह तुम्हारा आचरण भी ठीक उसी के सदृश ही है । अनेक शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही तुम्हें मानव-तन प्राप्त हुआ और इसलिये यदि तुमने इसी प्रकार आचरण किया तो शिरडी तुम्हारी सहायता ही क्या कर सकेगी । कहने का तात्पर्य केवल यह है कि भक्त ने उपदेश ग्रहण कर लिया और वह वहाँ से चला गया । इस प्रकार प्रसंगानुसार ही वे उपदेश दिया करते थे । यदि उन पर ध्यान देकर नित्य उनका पालन किया जाय तो आध्यात्मिक ध्येय अधिक दूर न होगा । एक कहावत प्रचनित है कि – यदि मेरा श्रीहरि होगा तो वह मुझे चारपाई पर बैठे-बैठे ही भोजन पहुँचायेगा । यह कहावत भोजन और वस्त्र के विषय में सत्य प्रतीत हो सकती है, परन्तु यदि कोई इस पर विश्वास कर आलस्यवशबैठा रहे तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ भी प्रगति न कर उलटे पतन के घोर अंधकार में मग्न हो जायेगा । इसलिये आत्मानुभूति प्राप्ति के लिये प्र्तेक को अनवरत परिश्रम करना चाहिये और जितना प्रयत्न वह करेगा, उतना ही उसके लिए लाभप्रद भी हो । बाबा ने कहा कि मैं तो सर्वव्यापी हूँ और विश्व के समस्त भूतों तथा चराचर में व्याप्त रहकर भी अनंत हूँ । केवल उनके भ्रम-निवारणार्थ ही जिनकी दृष्टि में वे साढ़े तीन हाथ के मानव थे, स्वयं सगुण रुप धारण कर अवतीर्ण हुए । इसलिये जो भक्त अनन्य भाव से उनकी शरण आये और जिन्होंने दिन-रात ही उनका ध्यान किया, उन्हें उनसे अभिन्नता प्राप्त हुई, जिस प्रकार कि माधुर्य और मिश्री, लहर और सममुद्र तथा नेत्र और कांति में अभिन्नता हुआ करती है । जो आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहे, वे शांत और स्थिर होकर अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें । दुःखदायी कटु शब्दों के प्रयोग से किसी को दुःखित न कर सदैव उत्तम कार्यों में संलग्न रहकर अपना कर्तव्य करते हुए अनन्य भाव से भयरहित हो उनकी शरण में जाना चाहिये । जो पूर्ण विश्वास से उनकी लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करेगा तथा अन्य वस्तुओं की चिंता त्याग देगा, उसे निस्संदेह ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होगी । उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा । जो यह जानने को उत्सुक थे कि मैं कौन हूँ । बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया । किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा । अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा । उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी । उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये । एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मघपान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा । किसी-किसी को मंत्र जैसे गुरुब्रर्हा अदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा । उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है । साधारण सांसारिक व्यवहारों में उन्होंने अपने आचरण द्घारा ऐसे अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें से एक यहाँ नीचे दिया जाता है । 



परिश्रम के लिये मजदूरी 

एक दिन बाबा ने राधाकृष्णमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा । तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया । वे उनके घर पर चढ़ गये और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दूसरे छोर से नीचे उतर आये । इसका अर्थ किसी की समझ में न आया । राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी । इसलिये हो सकता है कि उनका ज्वर दूर करने के लिये ही उन्होंने ऐसा कार्य किया हो । नीचे उतरने के पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रु. पारिश्रमिक स्वरुप दिये । तब एक ने साहस कर उनसे पूछा कि इतने अधिक पैसे देना क्या अर्थ रखता है । उन्होंने कहा कि किसी से बिना परिश्रम का मूल्य चुकाये कार्य न कराना चाहिये और कार्य करनेवाले को उसके श्रम का शीघ्र निपटारा कर उदार हृदय से मजदूरी देनी चाहिये । यदि बाबा के इस नियम का पालन किया जाये अर्थात् मजदूरी का भुगतान शीघ्र और मजदूरों के लिये सन्तोषप्रद हो तो वे अधिक उत्तम कार्य करेंगे, लगन से कार्य करेंगें । फिर कार्य छोड़ने एवं हड़तालों की कोई समस्या ही नहीं रह जायेगी और न ही मालिक और मजदूरों में वैमनस्य पैदा होगा । 

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