शिरडी के सांईं बाबा के भक्त म्हालसापति का पूरा नाम म्हालसापति चिमनजी नगरे था। वे पेशे से सुनारी का कार्य करते थे। म्हालसापति ने ही बाबा को सबसे पहले 'आओ साईं' कहकर पुकारा और उन्हें साईं नाम दिया। म्हालसापति पर बाबा को अटूट विश्वास था।
एक दिन बाबा ने तीन दिन के लिए अपने शरीर को छोड़ने से पहले म्लालसापति से कहा कि यदि मैं तीन दिन में वापिस लौटूं नहीं तो मेरे शरीर के अमुक जगह पर दफना देना। तीन दिन तक तुम्हें मेरे शरीर की रक्षा करना होगी। धीरे-धीरे बाबा की सांस बंद हो गई और शरीर की हलचल भी बंद हो गई। सभी लोगों में खबर फैल गई की बाबा का देहांत हो गया है।
डॉक्टर ने भी जांच करके मान लिया कि बाबा शांत हो गए हैं, लेकिन म्हालसापति ने सभी को बाबा से दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने कहा, तीन दिन तक इनके शरीर की रक्षा की जिम्मेदारी मेरी है। गांव में इसको लेकर विवाद हो गया लेकिन म्हालसापति ने बाबा के सिर को अपनी गोद में रखकर तीन दिन तक जागरण किया। किसी को बाबा के पवन शरीर को हाथ भी नहीं लगाने दिया। तीन दिन बाद जब बाबा ने वापिस शरीर धारण किया तो जैसे चमत्कार हो गया। चारों और हर्ष व्याप्त हो गया।
म्हालसापति और तात्या ये दोनों ही रात को बाबा के साथ मस्जिद में ही सोया करते थे। बाबा सहित तीनों का सोने का ढंग अजीब था। ये तीनों सिरों को पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर करते थे और तीनों के पैर बीच में आपस में एक जगह मिले हुए होते थे। इस तरह लेटे हुए तीनों ही देर रात तक चर्चा करते रहते थे।
तत्या को खर्राटे लेने की आदत थी। तात्या खर्रांटे लेने लगता तो बाबा उसे उठकर हिलाते थे। जबतात्या के पिता की मृत्यु हो गई तब तात्या के ऊपर घर की जिम्मेदारी आ गई और फिर वे घर पर ही सोने लगे। म्हालसापति जब भी मस्जिद में आने के बाद जाने का कहते, बाबा उन्हें बड़े प्यार से रोक लिया करते और जाने की अनुमति नहीं देते। यहां तक की चावड़ी से निकलने वाले चल समारोह में भी वे बाबा के सबसे निकट रहा करते थे।
म्हालसापति के यहां जब पुत्र हुआ तो वे उसे बाबा के पास लेकर आए और उसका नामकरण करने के लिए कहने लगे। बाबा ने उस पुत्र को देखकर म्हालसापति से कहा कि इसके साथ अधिक आसक्ति मत रखो। सिर्फ 25 वर्ष तक ही इसका ध्यान रखो, इतना ही बहुत है। ये बात म्हालसापति को तब समझ आई जब उनके पुत्र का 25 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। 1922 में भगत म्हालसापति का देहांत हो गया।
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